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Showing posts from June, 2010

तुम्हे आना है तो आ जाना

तुम्हे आना है तो आ जाना, वरना सूने दिन और उदास राते हैं, चिंता कल की है, और भी मनहूस बातें हैं. जहर है इन हवाओं में, लोगों में भी जज्बा कम है. यूँ तो सब कुछ है सबके पास, हर दिल में एक ही गम है. ना आओगे तो भी रातें कट जाएगी मेरा जलना ही कहाँ कम है. या फिर चलो तुम अपनी राह तुम्हारे पास और भी बातें हैं हम तो ऐसे ही दीवाने हैं अपनी तो ऐसे दिन और ऐसी ही रातें हैं. © अमित Amit   २३ जून २०१०

मंजिल भी नहीं पाई, और रास्ता भी नहीं बदला

कश्ती भी नहीं बदली, दरिया भी नहीं बदला, हम डूबने वालों का जज्बा भी नहीं बदला, है शौक-ए-सफर ऐसा, इक उम्र हुई हम ने, मंजिल भी नहीं पाई, और रास्ता भी नहीं बदला| --अज्ञात

काँच की बरनी और दो कप चाय - एक बोध कथा

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है । दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ... उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ ... आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये , धीरे - धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने