मैं तो तेरी राह में चलता गया यूं रात दिन, मंजिले दर मंजिलें बढता गया मैं रात- दिन। धुप मिले कभी, तो कही छांव के दामन मिले, बस बढता गया मैं मिल के पत्थर गिन-गिन। इस सफर के रास्ते क्या सराय भी सुनसान हैं, यूं चला की ख़ुद को खोता गया मैं दिन- ब- दिन। इस कदर इस राह पर चलता गया मैं रात- दिन, बस रास्ते ही याद थे, भूलता गया मैं रात, दिन। © अमित Amit
...Coming across different shades of life, compels to think in more colours... dream in many worlds! So, my posts reflect that departure n variation! एक विद्रोही की यात्रा...