यह तेरा, वह मेरा ये कितने का, वो इतने का. जितने लोग, उतनी आवाजे उतने सुर और उतनी ही ताने. यूँ श्रोता बन बैठे हैं, किसकी माने, किसकी न माने. रेत सी सरकती जिंदगी, बदलते मानदंड, नव अवतरित आशाये क्षणिक मान और उसकी भाषायें, कब से कर्ता बन बैठे हैं जितना करें उतनी अभिलाषाएं. संकट है यह शोर, मेरे और तेरे का मायाजाल कुछ पाने की ख़ुशी, कुछ न पाने का मलाल मन का यह शोर बेमिशाल. बस कुछ सूना जाता है, क्या नहीं करा जाता है. कोई रहे या ना रहे यह शोर, खुद की गवाही करा जाता है. यह फिर कुछ कहता है - यह-वह का चक्कर छोड़ो इस बार इसे सुनते हैं... अब तो द्रष्टा बन बैठे हैं फिर काहे का शोर, काहे की आशाये. - अमित श्रीवास्तव १५ दिसम्बर २००९ © अमित Amit
...Coming across different shades of life, compels to think in more colours... dream in many worlds! So, my posts reflect that departure n variation! एक विद्रोही की यात्रा...